मुनि-महाराज जी को आहार देने के बाद चौके में जो सामान बच जाता है, क्या उस सामान का उपयोग करने में दोष लगता है?
नहीं करें तो दोष है, अगर करें तो दोष नहीं है। आपने जो आहार बनाया है, वो अपने लिए बनाया है या महाराज के लिए बनाया है? कई बार लोग बोलते हैं कि हम लोग तो गरम पानी नहीं पीते, ठंडा पानी पीते हैं। हम शुद्ध बनाते हैं, गरम पानी करते हैं, महाराज के लिए। ‘महाराज का चौका है’, यह बोलना बिल्कुल गलत है, शास्त्र विरुद्ध है। चौका महाराज का नहीं है, चौका आपका है। तो हम महाराज के उद्देश्य से चौका नहीं करते। जहाँ चार ‘क’ पर विचार हो, वो चौका होता है। चार ‘क’ यानी क्या, कहाँ, कब और कैसे। ‘क्या’- द्रव्य, ‘कहाँ’- क्षेत्र, ‘कब’- काल, ‘कैसे’- भाव!
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की शुद्धि के बिना आपको आहार दान देने की पात्रता ही नहीं आयेगी। जैसे आप भगवान का अभिषेक करना चाहोगे, तो शुद्ध वस्त्र पहनना होगा। इसी प्रकार आहार दान देने वाले को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की शुद्धि रखना जरूरी है। तो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की शुद्धि रखने का नाम ही तो चौका लगाना है। यदि आपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की शुद्धि करके अपने लिए भोजन बनाया है और ‘साधु आ गये, तो मेरा अहो भाग्य। नहीं आये, तो मुझे खाना ही है।’ इसलिए चौका लगे और उसके बाद बचे तो उसे रुचि पूर्वक खाओ और साधु ने यदि एक दिन बिना नमक का लिया, तो तुम भी एक दिन बिना नमक का ले लो। देखो कितना मजा आता है? एक कदम आगे बढ़ने की भावना रखो। इतना नहीं कर सकते हो, तो इतना ही करो कि कम से कम ऊपर से नहीं डालो, बहुत मज़ा आता है।
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