क्या भगवान और गुरुओं के लिए बाबा शब्द का प्रयोग उचित है?

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शंका

मैंने एक प्रवचनांश सुना था और उसमें बाबा शब्द की व्यक्ति हो रही थी। बाबा, बड़े बाबा, छोटे बाबा, पारस बाबा, बड़े बाबा-कई प्रकार से बाबा शब्द का प्रयोग किया जाता है। बड़े बाबा और छोटे बाबा हमारी आस्था के प्रतीक हैं। इस बाबा शब्द के अर्थ की अभिव्यक्ति करके हमें संदेश देने की कृपा करें।

समाधान

ये बाबा शब्द क्या है? बाबा हम किसे बोलते हैं? जिनको हम अपना आधार मानते हैं, जिनको हम अपना संरक्षक मानते हैं, जिनको हम अपना तारणहार मानते हैं, उनको बाबा बोलते हैं। ये शब्द आज के चलन में आया हुआ शब्द है। ये हिन्दी का शब्द है। संस्कृत-प्राकृत के जमाने में बाबा शब्द नहीं चलता था लेकिन देश काल में जैसे और शब्द चले अपने पूज्य पुरूषों के लिए या पूजनीय प्रतीकों के लिए, उन्होंने उसी शब्द का प्रयोग किया। 

जब हम किसी महान विभूति के समक्ष जाते हैं तो उसके चरणों में दर्शनार्थी बनकर ही नहीं जाते, शरणार्थी बनकर के जाते हैं। इस मानसिकता से जाते हैं कि ये हमारे तारणहार हैं। इनके माध्यम से हमारे दुःख निवारण होगा। इनके माध्यम से मेरे जीवन का उद्धार होगा और उसके लिए हर व्यक्ति अपनी भाषा और भाव के माध्यम से जो उत्कृष्ट अभिव्यक्ति दे सकता है वो देता है। 

तो बाबा शब्द कहना यानि आज की भाषा में किसी पूज्य के प्रति अपनी उत्कृष्ट श्रद्धा को अभिव्यक्त करना, और ऐसी अभिव्यक्ति आप किसी भी शब्द से कर सकते हो। मानता हूँ कि अतीत में संस्कृत-प्राकृत में बाबा शब्द नहीं था तो क्या हो गया? भाषा से महत्त्वपूर्ण भाव है। उस समय तो हिंदी भाषा ही नहीं थी। हिन्दी भाषा के ऐसे बहुत सारे शब्द हैं जो अतीत में चलन में नहीं थे और अतीत में चले संस्कृत के बहुत सारे ऐसे शब्द हैं जो आज चलते नहीं हैं। उनका अर्थ अनर्थ रूप है, जैसे पाखण्डी। आज किसी को पाखण्डी बोलो तो क्या होगा? बुरा लगेगा; पाखण्डी का मतलब ढोंगी। आचार्य समन्तभद्र और कुन्दकुन्द के समय में पाखण्डी का मतलब था- जो पाप का खण्डन करता है वो पाखण्डी, यानि साधु। तो उस संस्कृति को, उस प्राकृत को आज आप पकड़ोगे? अगर उन्हें आप पकड़कर के चलते हो तो आपके अर्थ का अनर्थ हो जाएगा। आज आप साधु शब्द का प्रयोग करते हो, मुनि शब्द का प्रयोग करते हो, सन्त शब्द का प्रयोग करते हो; सन्त शब्द भी प्राचीन शब्द नहीं है ये बाद का शब्द है। लेकिन यदि इनको हम पढ़ते हैं तो यह रूढ़ शब्द हैं। ऐसे शब्दों के प्रयोग में कोई गलती नहीं है।

मैं तो ये समझता हूँ कि अगर इन शब्दों के पर आपत्ति जताई जाती है, तो व्यक्ति के भाव को प्रमुखता न देकर केवल अपने पांडित्य का प्रदर्शन करते हुए शब्द रूढ़ होने की चेष्टा की जाती है। जबकि ऐसा नहीं है, भाव रूढ़ होना चाहिए। बाबा-हर साधु को लोक में बाबा कहा जाता है और जिनके प्रति हमारी ऊँची आस्था है वो बड़े बाबा हैं, और उन बड़े बाबा के चरणों में जो रह जाए वो छोटे बाबा तो होंगे ही होंगे। मैंने देखा है कि सारे बुंदेलखण्ड के इलाके में आराध्य के रूप में, चाहे जैन हो या अजैन, वहाँ दो ही बाबा हैं- एक बड़े बाबा हैं, दूसरे छोटे बाबा हैं। 

इसमें सोचने की क्या ज़रूरत है? वो बड़े बाबा हैं, ये छोटे बाबा हैं। इसलिए कि इस छोटे बाबा ने बड़े बाबा की महिमा को बढ़ाया है। बड़े बाबा को जन जन से परिचय कराने का श्रेय छोटे बाबा को मिला है, तो निश्चित ही बड़े के आगे यदि कोई होगा तो और बड़ा नहीं बन सकता, छोटा ही होगा। 

मैं एक ही बात कहता हूँ, छोटे बाबा की जय बोलो और खोटे बाबा से दूर रहो। छोटे बाबा और खोटे बाबा का भेद समझो। खोटे बाबा से खतरा है; छोटे बाबा से जीवन का उद्धार है, इसलिए इस तरह की बातें कहना समझ से परे है और इन सबको चर्चा का विषय बनाना भी मेरी दृष्टि में अप्रासंगिक है। मुझे समझ में नहीं आता कि जनता की आस्था की अभिव्यक्ति से हमें तकलीफ़ क्या है? ये तो शब्द है। शब्द प्रत्यय से ज़्यादा बड़ा भाव प्रत्यय। 

रामचन्द्र जी का जब वनवास हुआ तो उस वनवास के काल में जब वो शरयू नदी के किनारे पहुँचे, तो निषादराज एक भील था जो उनसे तू-तड़ाक बात कर रहा था। लक्ष्मण जी को क्रोध आ गया कि श्रीराम जी से ऐसी भाषा में बात करता है, इसे तमीज़ है क्या? रामचन्द्र जी, रामचन्द्र जी थे। रामचन्द्र जी ने कहा लक्ष्मण भाषा नहीं भाव देखो। इसके अन्दर इतनी भक्ति है, इतनी श्रद्धा है, इसके भाव को देखो। 

बाबा कहो, चाहे कुछ कहो। बाबा मुख से तब निकलता है जब हृदय में श्रद्धा का ज्वार उमड़ता है। इसके बिना बाबा शब्द का प्रयोग हो ही नहीं सकता। इसलिए इनके ऊपर टिप्पणी करना ही मैं निरर्थक समझता हूँ।

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