क्या घर में रहते हुए देह त्यागने को सल्लेखना कहा जा सकता है?

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शंका

क्या घर में रहते हुए देह त्यागने को सल्लेखना कहा जा सकता है?

समाधान

हमारे आगम में जो सल्लेखना विधि बताई है वह गुरु के सानिध्य में ही बताई है। घर में सल्लेखना की परिपाटी दिगम्बर परम्परा में ना के बराबर है। आप सल्लेखना के स्वरूप को समझें तो यहां तक लिख दिया कि- ‘एक मुनि महाराज को यदि सल्लेखना लेनी है, आचार्य को भी सल्लेखना लेनी है, तो अपने संघ को छोड़कर परगण में जाएँ ताकि वीतराग भाव से अपनी सल्लेखना हो।’ लेकिन फिर भी कई बार गृहस्थों में ऐसी अनुकूलताएँ नहीं बनती, साधु-सन्तों का समागम आसानी से नहीं मिलता। तो ऐसी स्थिति में मन्दिर जी में या घर में ही मन्दिर जैसा वातावरण बना कर विवेकी श्रावकों की उपस्थिति में सल्लेखना होती है। पर किसी के भी मरण को सल्लेखना की संज्ञा तब दी जाती है; जब वह व्यक्ति विधि पूर्वक भोजन, पानी आदि का क्रमशः परित्याग करते हुए शान्त परिणामों के साथ अपनी कषायों को और काया को क्रश करते हुए अपनी शरीर का त्याग करें, जिसे कहते हैं- भक्त प्रत्याख्यान विधि! इस विधिपूर्वक जो शरीर छोड़ता है, उसे हम सल्लेखना कह सकते हैं, जो भक्त प्रत्याख्यान के द्वारा हो। लेकिन अचानक किसी का मरण हो जाए, स्थिति गंभीर हो जाए और वह कुछ देर के लिए अपने भोजन-पानी आदि का त्याग कर दे और कोई संबोध दे और यह देह छूट जाए, वह सु:मरण है, पर उसे सल्लेखना नहीं कह सकते। 

मरण के १७ भेद जैन आगम में बताएँ है। उसमें -सम्यक्त्व मरण, बाल मरण, बाल पंडित मरण, पंडित मरण, पंडित-पंडित मरण- ये मरण के पाँच भेद बताएँ है। सम्यक्त्व मरण, पंडित मरण, वीर मरण, ये सब भी मंदित मरण के भेद बताएँ है। तो धर्म ध्यान पूर्वक यदि कोई देह त्यागता है, तो उसको सम्यक्त्व मरण माना जाता है। समता भाव से यदि कोई शरीर को छोड़ता है, तो वह उसका समाधि मरण कहलाता है। लेकिन वह भोजन-पानी आदि को व्रती बनकर, ज्ञान पूर्वक भक्त प्रत्याख्यान के साथ छोड़े तो यह बाल पंडित मरण होता है। मुनि अवस्था में वह शरीर छोड़े तो उसका पंडित मरण होता है और केवल ज्ञान के साथ छोड़े तो पंडित-पंडित मरण होता है। 

तो सल्लेखना बिना मुनियों के, गुरुओं के सानिध्य के नहीं करना क्योंकि अन्त समय में परिणामों को संभालना बहुत मुश्किल होता है और योग्य गुरु ही सही तरीके से सल्लेखना करा सकते हैं।

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