गुरुओं के दर्शन करते समय अनुशासन का पालन करें!

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शंका

प्र.१. आचार्य श्री विद्यासागर जी के साथ आजकल इतनी पुलिस सिक्योरिटी क्यों है?

प्र.२. आहार देते समय सोले वालों को सिक्योरिटी वाले हाथ से धक्का देते हैं और वे ही दूसरे चौके में जाकर आहार देते हैं तो ये गलत नहीं क्या?

समाधान

उ.१. महापुरुषों के साथ सिक्योरिटी तो होनी चाहिए। आप कह रहे हैं आचार्य श्री के साथ इतनी सिक्योरिटी क्यों रहती है? मैं कहता हूँ यह होना भी चाहिए। तीर्थंकरों की सिक्योरिटी नहीं देखी? समवसरण जाने में ४ परकोटे पड़ते हैं एक साइड से और तीन वेदियाँ होती हैं। हर परकोटे में चतुर्निकाय के देवों में अलग-अलग निकाय के देव द्वारपालों की तरह खड़े रहते हैं कि कोई सिरफिरा अन्दर न घुस जाए। समझ लो यह क्यों? आचार्य महाराज आज इतने उच्च अवस्था में पहुँचे हुए हैं कि हर कोई व्यक्ति उनके नजदीक आना चाहता है और देखकर के पागल हो जाता है, उस समय वह अपनी सुध-बुध खो देता है। यदि ध्यान न दिया जाए तो वह कभी भी चोटिल हो सकते हैं। 

अभी कुछ दिन पहले हुआ कि गुरुदेव दीवाने भक्तों के भक्ति के कारण गिरते-गिरते बचे हैं, बल्कि गिर ही गए, उन्होंने अपने हाथ के बल पर अपने आप को थामा। चलते-चलते एकदम से कोई पैर पकड़ ले तो गिरना होगा कि नहीं? पैर छूने का भी अपना एक अनुशासन होता है। आप लोग भी ध्यान रखो, जितने लोग सुन रहे हैं ध्यान रखो, कभी भी गुरु चल रहे हैं तो दूर से प्रणाम करो, उस समय पाँव छूने का प्रयास मत करो। लोग एकदम उनके सामने गिरना चाहते हैं। यदि ऐसी व्यवस्था न बने तो उनकी सुरक्षा कैसे होगी? एक बार वह १९८५ में जनवरी महीने में गिर चुके हैं, उनके हाथ में हेयर लाइन फैक्चर हो चुका है। कहने का तात्पर्य है कि हमें उनका लाभ लेना है और उनके लिए व्यवस्था होनी चाहिए। 

लोगों की स्थिति क्या है मैं आपको बताऊँ? सन २००१ में उनकी अगवानी करने के लिए मैं दमोह में था। दमोह में उनकी अगवानी कर रहा था और २०,००० से २५,००० लोग थे, भीड़ बेहिसाब उमड़ रही थी। उनकी अगवानी करने के बाद एक दाल मिल था, भाई अशोक जैन का था। मैंने कहा गुरुदेव आप थोड़ी देर के लिए अन्दर बैठें ताकि यह भीड़ नियंत्रित हो जाए फिर यहाँ से चले तो अच्छा रहेगा। मैं उनको लेकर के जा रहा था, एक युवक ने मेरे बाहों में इतनी जोर का धक्का दिया कि १५ दिन तक मेरी बांह दुखती रही। यह तो हाल है तुम लोगों के तो क्या किया जाए? अगर उनके साथ कोई नहीं हो तो वे आहार न कर पाएं, वे चल न पाएं फिर न पाएं। महापुरुषों का पुण्य इतना ज़्यादा होता है कि कई-कई बार वह पुण्य भी उनके लिए बाधक बन जाता है, तो ऐसी व्यवस्था वहाँ बनानी चाहिए, जरूरी है और सब को ध्यान रखना चाहिए। यह किसी को डराने के लिए नहीं या उनकी असुरक्षा की चिन्ता के लिए नहीं बल्कि उनको असुविधा न हो इस बात को ध्यान में रखते हुए रखना बहुत जरूरी है।

उ.२. यह तो जिनको छुआ उनको सोचना चाहिये। पहली बात तो उनको दूसरी जगह जाना नहीं चाहिए। अनुशासन किसको बोलते हैं? आप गुरु को आहार तो देना चाहते हैं पर अनुशासन नहीं सीखना चाहते तो गुरु से क्या पाएँगे? आपको अगर दिख रहा है क्या रिस्ट्रिक्शन (restriction) है, नहीं लिया जा रहा, आप लाइन में मत लगिये, कोई छूने का सवाल ही नहीं होगा। आप लोग हैं ठसने वाले, सब जगह घुसपैठ। घुसपैठियों की दशा तो ऐसे ही खराब होती है, घुसपैठ क्यों करते हो? नहीं लेना तो अनुमोदना करिए और ऐसी अगर व्यवस्था बन जाए कि लोग पंक्ति पर लाइन से खड़े हो जाए तो एक आदमी ने दिया, उसको हाथ लगा दिया, सबका लग गया। भावनाओं को संयत करना चाहिए। उस घड़ी लोग भावनाओं में इतना बह जाते हैं कि सब सुध-बुध भूल जाते हैं। उन्होंने छुआ यह तो दिखा, आपने अनुशासन तोड़ा यह नहीं दिखा और आप छुआ जाने के बाद भी दूसरे साधु को आहार दे रहे हैं और मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि बोल रहे हैं तो आप श्रावक कहां? ऐसा व्यक्ति आहार देकर के भी क्या पाएगा? इसलिये अनुशासन का पाठ सीखना चाहिए। अनुमोदना करके लाभ उठा लीजिए। ध्यान रखिए, केवल गुरु की अंजलि में कौर दे देना मात्र आहार दान नहीं है, आप कौर दिए बिना दूर से अनुमोदना करके भी वह सब कुछ अर्जित कर सकते हैं जो साक्षात् देने वाला भी न पा सके, इसलिए अनुशासन रखें।

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