क्या विज्ञान और जैन आगम में वर्णित सूर्य-चन्द्र एक ही हैं?

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शंका

क्या विज्ञान और आगम में वर्णित सूरज और चाँद एक ही हैं या उनमें कुछ भिन्नता है?

समाधान

दोनों में बहुत भिन्नता है और दोनों को मिलाने की कोशिश मत करना।

भूगोल और खगोल के विषय में जब भी प्रश्न आए तो ध्यान रखना; हमारे शास्त्रों में दो प्रकार की पृथ्वी का उल्लेख है- एक शाश्वत पृथ्वी और एक अशाश्वत पृथ्वी! शाश्वत पृथ्वी वो है जहाँ काल का कोई परिवर्तन न हो और अशाश्वत पृथ्वी वो है जहाँ काल का परिवर्तन हो। हमारे शास्त्रों में जितना भी वर्णन है वो शाश्वत भूगोल का है, शाश्वत पृथ्वी का है। अशाश्वत का जो उपदेश था वो आज उपलब्ध नहीं है; या तो काल के प्रभाव में नष्ट हो गया या हमको मिला ही नहीं। अब मुश्किल ये है कि हम जहाँ रह रहे हैं वो धरती अस्थिर है और हमको शास्त्रों में उल्लेख मिला है कि वह स्थिर है, तो इसलिए गड़बड़ हो जाता है। तो मैं यह कहता हूँ, विज्ञान जो कह रहा है वह अपनी जगह सही है और हमारा धर्म शास्त्र जो कहता है वह अपनी जगह सही है। इसका बीज मैंने आगम से ही ढूंढा, आगम में ऐसा वर्णन आता है कि भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र का आर्य-खण्ड जब भोग भूमि से कर्म भूमि की ओर परिवर्तन होने को होता है, तो ये धरती एक योजन ऊपर उठ जाती है। जब धरती एक योजन ऊपर उठेगी तो ऐसा तो है नहीं कि तस्तरी की तरह उठेगी। एक गोल चीज, थाली की तरह चपटी, उसका एक ठोस हिस्सा उठा हो। ऐसा नहीं है कि धरती का एक बड़ा पिण्ड उठा होगा तो वो धरती उठी, एक योजन तक उठी ऐसा विधान मिलता है। एक योजन तक उठने पर इस धरती में अनेक क्षुद्र पर्वत और उप समुद्र प्रकट हो गए, अनेक नाले उत्पन्न हो गए। पहले तो धरती सपाट थी। इस कारण इस भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड का शेष जम्बूद्वीप से कनेक्शन खत्म हो गया। तो मुझे ऐसा लगता है कि आज हमारे शास्त्रों में भले ये देखने को नहीं मिलता लेकिन निश्चित इसकी सम्भावना है कि ये जो इस आकार में से हमारी धरती ऊपर उठी, हो सकता है कि उसने उठकर के अपना ग्लोबल आकार ले लिया हो, जिसके बारे में आज शास्त्र मौन है और धरती ने ऐसा आकार धारण कर लिया हो। 

अब रहा सवाल जब ये परिवर्तन हुआ होगा तो इस परिवर्तन के साथ प्रकृति में कुछ और परिवर्तन भी हुए होंगे क्योंकि धरती का एक बड़ा भाग ५२६ सही ६/२९ योजन वाला भरत क्षेत्र और उस भरत क्षेत्र का एक आर्यखण्ड, उसका भी क्षेत्रफल बहुत बड़ा है। इतना तो कम नहीं है लेकिन इस भरत क्षेत्र का इतना बड़ा भूभाग उठा होगा तो हो सकता है धरती का ये ही भूभाग उछटकर इधर-उधर हो गया और जिसे आज की गैलेक्सी के रूप में देखा जाता है। हो सकता है वो भी इसके पीछे का एक कारण हो। ये तो केवल मेरा चिंतन है, आगम नहीं है। नहीं तो आप कहोगे कि महाराज जी ने ये कौन सी मन-गढ़ंत बातें कह दीं, लेकिन मेरी बात जाँचें तो मान लेना, नहीं तो एक तरफ कर देना। 

सूर्य-चंद्रमा, ग्रह-नक्षत्र जो हमारे शास्त्रों में वर्णित हैं, वो तो बहुत ऊपर हैं। जैन शास्त्रों के अनुसार चंद्रमा के पास बाद में जायेंगे, सूर्य पहले मिलेगा और ७९० योजन की ऊँचाई से इनकी शुरूआत होती है, बहुत ऊँचाई पर, तो यह निश्चित कोई न कोई परिवर्तन हुआ होगा? क्योंकि आज जहाँ ये लोग पहुँचे हैं, उसको हम नकार नहीं सकते तो वो कुछ न कुछ होगा, जो इसी पृथ्वी से ही किसी तरह से लिंक होंगे। आज हमारे शास्त्र उपलब्ध नहीं है इसलिए हम इसके बारे में नहीं कह सकते।

तो बस यही समझो, धरती गोल हो या चपटी, सूरज धरती का चक्कर लगाये या धरती सूरज का चक्कर लगाये हमको दुनिया के चक्कर में नहीं आना है, हमें अपनी आत्मा में डूबना है। आचार्यों का मूल प्रतिपाद्य आत्मा की शुद्धि का है, बाहर का नहीं। उस तत्त्व ज्ञान में कोई फेर नहीं है उसे प्राप्त करिए, निश्चित कल्याण होगा।

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