भगवान महावीर की वाणी क्या लोप हो रही है?

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शंका

विश्व वंद भगवान महावीर स्वामी ने जो उपदेश और वाणी दी, वह द्वादशांग वाणी के रूप में प्रसिद्ध हुई। लेकिन, आज हम देखते हैं जो परम्परा है कि जो द्वादशांग वाणी हैं, उसमें एक परम्परा 11 अंगों को छेद और लोप मानती है और दूसरी परम्परा कहती है कि द्वादशांग वाणी का जो बारहवाँ अंग था- दृष्टिवाद, वो लोप हो गया तो इसके पीछे कोई शास्त्रीय या प्रामाणिक या प्राचीन आधार है कि केवल गतानुगत का है, एक के बाद एक लोग कहते गए। यह प्रश्न इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि ये सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, जैन एकता को पुष्ट करने वाला है। इसलिए हम चाहते हैं कि आपका मार्गदर्शन मिले।

समाधान

जहाँ तक शास्त्र की बात है, दोनों परम्पराओं की अपनी-अपनी अवधारणा है। भगवान महावीर ने जो कहा, उन्होंने कुछ लिखा तो था नहीं। भगवान महावीर के बाद एक लंबे समय तक कोई भी ग्रन्थ लिपिबद्ध नहीं हुआ। इतिहास बताता है कि वल्लभी और पाटलिपुत्र की वाचना के बाद एक परम्परा के द्वारा भगवान की वाणी को 11 अंग के रूप में कंपाइल किया गया और दृष्टिवाद नामक अंग के उच्चछेद की बात की गई। हमारी दूसरी परम्परा भी लगभग उसी काल में भगवान महावीर के निर्वाण के 583 वर्ष बाद सर्वप्रथम षटखंडागम और कषाय पाहुड, भेज दो सृष्टि की रचना लिपिबद्ध करने की बात कहती है, तो दोनों तरफ की बातें तो यही है, हमारा वहाँ कंपाइल किया गया उसके विषय वस्तु को देखने के बाद बहुत सारी बातें मन में उठती है कि इसमें कथा उपकथाऐ हैं और कुछ कथोकथन ऐसा है जो बहुत पुनरावर्तन से भी भरा पड़ा है, कुछ भी हो मैं तो एक ही बात कहता हूँ, भगवान की वाणी द्वादशांंग के रुप में, ग्यारह अंग के रूप में, एक अंग के रूप में, एक अंग के अंश के रूप में, या किसी भी रूप में हो आज इस विषय पर सवाल खड़ा करने की आवश्यकता नहीं है कि भगवान की वाणी कितनी बची, हमें केवल यह देखने की जरूरत है कि भगवान की वाणी का अनुसरण करके हम अपने जीवन को कितना बचा सकते हैं, वह बचा ले तो हमारा बेडा पार होगा। 

सूत्र का पार नहीं है काल थोड़ा है हम दुर्बुद्धि हैं, इसलिए हमें वही सीख लेना चाहिए। जिससे जन्म मरण का क्षय हो, हमारी दृष्टि भगवान के द्वारा प्रतिपादित मूल तत्त्व पर होनी चाहिए, सात तत्त्व की जो प्ररूपना है चाहे वह द्वादशांग के अंग के रूप में हो अथवा आज अंग वाही के रूप में रचित ग्रंथों की बात हो उस तत्त्व के प्रति किसी का कोई मतभेद नहीं है और किसी भी प्रकार का संदेह नहीं हमारा कल्याण तत्वज्ञान से होगा, शब्द ज्ञान से नहीं इसलिए जो आगम बचा है और उस आगम का अनुकरण करते हुए हम अपने जीवन का जितनी सहजता से कल्याण करें करने का प्रयास करना चाहिए। मेरा पूरी समाज को यही संदेश हैं।

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