‘पुण्य फला अरिहन्ता’, समवसरण की विभूति तो पुण्य से प्राप्त होती है फिर घातिया कर्म का नाश कैसे होता है?
‘पुण्य फला अरिहन्ता’ जो कहा गया है उसके आशय को समझें। अरिहन्त अवस्था में पुण्य का उत्कृष्ट फल फलता है लेकिन अरिहन्त अवस्था पाप के क्षय से प्रकट होती है। घातिया कर्म जितने भी हैं वो सब पाप का रूप है। पुण्य के क्षय से कोई अरिहन्त नहीं बनता, पाप के क्षय से अरिहन्त बनते हैं। ‘कर्मन की तिरेसठ प्रकृति नाश’ जो आप बोलते है वो तिरेसठ प्रकृतियों में सैंतालिस घातिया कर्म हैं और तेरह नाम कर्म की अशुभ प्रकृतियाँ है और तीन आयु कर्म, जो उनको बँधी नहीं तो ये तिरेसठ प्रकृतियों में जो केवल ज्ञान को पाया, अरिहन्त अवस्था को पाया वह पुण्य के घात से नहीं पाया, पाप के क्षय से पाया। तो पाप को क्षय किया और बाद में पुण्य फला तो इसलिए पुण्य फला अरिहन्ता कहा। तीर्थंकर प्रकृति सर्वश्रेष्ठ पुण्य प्रकृति है जो अरिहन्त अवस्था में फलती है इसलिए उन्हें पुण्य फला कहते हैं।
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