क्या सभी मरने वाले ‘स्वर्गीय’ होते हैं?

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शंका

जब किसी जीव की मृत्यु होती है, तो हमें नहीं मालूम होता कि जीवन कौन सी गति को प्राप्त हुआ है- नरक, तिर्यंच, निगोद या स्वर्ग। फिर भी हम श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और उसके आगे ‘स्वर्गीय’ लगाते हैं। जैन पत्र-पत्रिकाओं में पुण्यतिथि के समाचार प्रकाशित होते हैं, क्या इनका प्रकाशन सही है? इस प्रश्न का खुलासा करके हमारा मार्गदर्शन करने की कृपा करें।

समाधान

मैंने पहले भी कहा था कि पुण्यतिथि मनाना ही यथार्थ में ठीक नहीं है। मैंने कहा था कि आप जिसे पुण्यतिथि कहते हैं वो पाप तिथि है। जिस दिन आयु का क्षय हो उस दिन तुम्हारा पाप है पुण्य नहीं है। ये तो लोक रूढ़ि है जिसे लोग मानते हैं। 

अब सवाल व्यक्ति के मरणोपरांत कहाँ जाता है? तो मैं ये समझता हूँ कि ये लोक-ख्याति है कि आदमी के जीते जी भले ही हम पॉजिटिव न सोचें पर मरने के बाद पॉजिटिव हो जाते हैं। इसलिए जो मरता है उन सब को स्वर्ग पहुँचा देते हैं। किसी को नारकीय नहीं बोला जाता है, सभी को स्वर्गीय बोला जाता है, इस भाव से कि ‘अब तो चला ही गया, ये मानकर चलो कि स्वर्ग ही गया होगा।’ ये तो सब के अपने-अपने परिणामों के ऊपर निर्भर करता है। और लोग यही समझते हैं कि स्वर्ग सिधार गये, चले गये हमारा काम हो गया। 

एक दिन पण्डित जगन मोहन लाल शास्त्री ने बहुत अच्छी बात कही थी। एक आदमी मरा तो किसी ने कहा कि ‘भगवान ने उसकी सुन ली।’ तो पण्डित जी ने टोका कि ‘उनकी सुनी कि तुम्हारी सुन ली, चले गये बला टली।’ इसलिए लिख देते हैं स्वर्गीय कि अब तो अच्छा रहे। 

एक लोक धारणा है जिससे आज भी जैन लोग प्रभावित हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि उसी लोक धारणा की वजह से शांति पाठ और विधान करने की परिपाटी हो गयी कि ‘भैया शांति विधान कर लो ताकि वो बैलेंस बना रहे।’ लेकिन ऐसा नहीं है; राख को सींचने से अंकुर नहीं होता। वो तो जा चुका जिस जीव का जहाँ संयोग होता है वहीं जाता है। जिसकी जो गति होती है वो वैसा ही करेगा। इसलिए इस बात को लेकर बहुत ज़्यादा सोच विचार करना ज़्यादा जरूरी नहीं है। 

अब सवाल कि ‘महाराज हम किसी की मृत्यु के उपरान्त क्या कहें?’ तो मैं यही कहता हूँ कि कम से कम मरने के बाद तो उसे अच्छा ही कहो बुरा कहकर क्या मिलेगा? वो जाये चाहे न जाये लेकिन उसे स्वर्गीय तो बना ही दो। ये परिपाटी है; पर ये बात सच मानना कि स्वर्ग की वैकेंसी बहुत लिमिटेड है, वहाँ हर किसी को प्रवेश नहीं मिलता है, फिर भी हम कहें तो अच्छा ही कहें। इसलिए ये एक परम्परा है कि कोई मरे तो उसके बाद उसे स्वर्गीय कहा जाये।

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