सभी तीर्थंकर समान गुणधारी हैं फिर भी कुछ ज़्यादा प्रसिद्ध क्यों हैं?

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शंका

हमारे चौबीस तीर्थंकर हुए हैं और सभी ने बराबर तपस्या की है। लेकिन वर्तमान में ६-७ तीर्थंकर ही प्रसिद्ध हैं। बाकी तीर्थंकरों की कुछ पूछ-परख नहीं है। शांतिधारा में भी आखिरी में, जो नौ तीर्थंकर प्रसिद्ध हैं, उनका ही नाम लिया जाता है। ऐसा क्यों।

समाधान

ये बात सही है कि चौबीस तीर्थंकर के आत्मिक गुणों में कोई अन्तर नहीं है। सभी तीर्थंकर समान गुणों के धारी हैं। इसलिए हम किसी में हीनाधिकता तो मान ही नहीं सकते। सब के अनंत चतुष्टय हैं और चौंतीस अतिशय हैं।

लेकिन सवाल है इन में कुछ के ज्यादा प्रसिद्ध होने का या कुछ के अनुयायियों की अधिकता होने का। मैं समझता हूँ कि इसमें सबसे बड़ा कारण ये पंचम काल और हुण्डावसर्पिणी का दोष भी हो सकता है और इसके पीछे एक अन्तरंग कारण ये भी समझ में आता है कि इन तीर्थंकरों के तीर्थंकर प्रकृति के अलावा इनकी कुछ पुण्य प्रकृतियाँ अपने जीवन काल में उदय में रही होंगी; और जीवन काल में उस पुण्य प्रकृति के परिणाम स्वरूप लोक धारणा इनके ज्यादा अनुकूल बन गई। शांतिनाथ भगवान के साथ शांति जुड़ा तो शांति के कर्ता हो गये। पारसनाथ भगवान ने विशिष्ट तपस्याएँ की और उपसर्ग सहन किया इसलिए वो विघ्न के हर्ता बन गये। चंद्रप्रभु भगवान के लिए जो अतिशय प्रकट हुआ आचार्य समन्तभद्र महाराज के काल में, इसलिए चंद्रप्रभु भगवान की ज्यादा प्रसिद्धि हो गई। आदिनाथ भगवान हमारे बड़े बाबा हैं तो वो प्रसिद्ध हैं ही। तो इसके पीछे कुछ न कुछ कारण है। हालाँकि किसी भगवान की पूजा हम कम करें या ज्यादा करें, भगवान की भगवत्ता में कोई कमी नहीं आती है। भगवान तो सब समान है। दीया अलग-अलग होता है ज्योति तो सब एक होती है। शान्ति धारा में नवग्रह से जुड़े भगवानों को जोड़ लिया है।

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