थोड़ा-थोड़ा दान हर जगह या बड़ा दान एक जगह?

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शंका

जब दान की बात आती है, तो कहीं ऐसा प्रसंग आता है कि “बच्चों को पढ़ाने वाले दान दो तो ज़्यादा बढ़िया है”, “बीमारों को दो तो ज़्यादा बढ़िया है”, “गौशाला को दो तो बढ़िया है”- इस तरह से सब जगह कुछ-कुछ करें या किसी एक जगह फोकस करके कुछ काम करें?

समाधान

दान एक बढ़िया कर्म है, यह मानकर दान दें। कौन सा दान ज़्यादा बढ़िया है, इसमें दिमाग मत लगायें। प्रसंग और परिस्थिति के अनुरूप दान दें, एक लौकिक दान है और दूसरा परमार्थिक दान है। लौकिक दान- हमारे यहाँ समसामयिक परिस्थिति के अनुरूप जब जो आ जाए उस समय वह दे दो। मैं आपको कहूँ कि एक भूखे को रोटी खिलाने से अच्छा है ज़्यादा पुण्य भगवान के मन्दिर बनाने में है, भगवान की पूजा में द्रव्य लगाने में है, भगवान के लिए उपकरण दान देने में है। आपने मेरे प्रवचन को सुन लिया, कहा यह तो सम्यक् दर्शन दिलाने वाला दान है और आप मन्दिर जाते समय एक भूखे को तड़पता देख रहे हैं और उसकी उपेक्षा करके भगवान के सामने में जाकर के चाँदी का नारियल चढ़ा रहे हैं, भगवान को आपकी ऐसी पूजा से कोई प्रेम नहीं होगा। भगवान कहेंगे कि मेरी पूजा का जो नारियल है न वह भूखे को खिला दे तो मैं ज़्यादा खुश होऊँगा। यह प्रसंग अनुरूप कार्य होता है इसलिए हमेशा देखना चाहिए कब क्या प्रसंग है, उसके अनुरूप सारा कार्य होना चाहिए। 

हमारे दान के पीछे उद्देश्य होना चाहिए – धर्म -संस्कृति की रक्षा, धर्म की प्रभावना, मानवता की सेवा- इन तीनों में जो, जब, जैसा प्रसंग आ जाए वैसा काम करना चाहिये। कोई criterion मत बनाओ, जहाँ प्रसंग समझ में आता है, “इस काम की  अभी जरूरत है, आवश्यक है और यहाँ करने से अपने धर्म को हम सार्थक कर सकते हैं”- करके निकल जाओ। अगर हमने कोई बड़ा लक्ष्य बना कर रखा है, हमने किसी बड़ी योजना से अपने आप को जोड़ रखा है और हमको लग रहा है यह कार्य बहुत अच्छा है, उसके लिए आप सेविंग कीजिए, रखिए और अपना काम करते रहिए, बहु भाग उसके लिए सुरक्षित रखें। लेकिन कभी-कभी ऐसा हो कि कोई अर्जेंसी आ जाए तो आप जरूरत पड़ने पर उसको भी समर्पित कर दीजिए। 

एक बड़े सन्त ने ग्रन्थ लिखा उस ग्रन्थ के प्रकाशन के लिए द्रव्य इकट्ठा हुआ, काफी पैसा लोगों ने इकट्ठा किया। सब लोगों ने अपनी शक्ति के अनुसार दान दिया, उस जमाने में हस्तलिखित प्रतियाँ होती थी। १००० प्रतियाँ उसकी बननी थी, बहुत महँगी होती थी, उसको ग्रन्थ का लिपि करने के लिए लोगों ने पैसा दिया, पैसा इकट्ठा हुआ। तभी बाढ़ आ गई, लोग दाने-दाने को त्राहि-त्राहि करने लगे। सन्त ने कहा “इस रुपए को बाढ़ पीड़ितों में खर्च कर दिया जाए।” उसके बाद जब सुकाल आया, लोगों ने फिर से पैसा इकट्ठा किया कि अब ग्रन्थ को प्रकाशित करें। प्रकाशित करने की योजना बनी, उस साल सूखा आ गया, त्राहि-त्राहि मच गई, लोग दाने-दाने के लिए मोहताज हो गए, उन्होंने कहा “यह धन सूखा पीड़ितों को दे दो।” इसके बाद सुकाल आया, लोगों ने फिर से पैसा दिया और अब की बार उस ग्रन्थ का प्रकाशन हुआ। उसमें लिखा गया तृतीय संस्करण (third edition), लोगों ने आश्चर्य से पूछा यह तीसरा संस्करण कैसे? सन्त ने कहा पहला संस्करण बाढ़ पीड़ितों के लिए समर्पित था, दूसरा संस्करण सूखा पीड़ितों के लिए समर्पित था और यह तीसरा संस्करण जनता जनार्दन के लिए समर्पित हुआ।

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