भगवान की अनन्त कृपा से हमें जो प्राप्त हुआ है उसको पर्याप्त नहीं मानते हुए हमेशा सन्ताप में सन्तप्त होते रहते हैं। थोड़ा है, थोड़े की जरूरत है। इस “थोड़ा है, थोड़े की जरूरत” को लेकर हम लोग सारे जीवन में सन्तप्त, और सन्तप्त होते रहते है, कृपया मार्गदर्शन दें?
थोड़ा है, थोड़े की जरूरत है इसी का नाम संसार है और मनुष्य अन्तिम क्षणों तक इसी आस में रहता है, थोड़ा है, थोड़े की जरूरत है। जिस दिन मनुष्य को यह समझ में आने लगेगा कि जितना है, पूरा है, पर्याप्त है, अब मुझे किसी की जरूरत नहीं तो इसकी सारी दौड़ खत्म हो जाए। ये-थोड़ा है थोड़े की जरूरत है- एक प्रकार से असन्तोष की अभिव्यक्ति है जो प्राप्त को पर्याप्त नहीं मानते। जब मनुष्य ‘प्राप्त को पर्याप्त’ मानना शुरू कर देता है, उसे समझ में आ जाता है “जितना है sufficient (पर्याप्त) है, अब मुझे इससे ज्यादा की आवश्यकता नहीं है”- यह सन्तोष की परिणति है। सन्तोष हमारे हृदय में तब तक प्रकट नहीं होता जब तक मनुष्य जीवन के यथार्थ को स्वीकार नहीं करता।
हर मनुष्य का एक भ्रमपूर्ण विश्वास है कि मैं जो चाहूँगा, वह मिल जाएगा। आज तक दुनिया में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ जिसने जो जो चाहा वह उसे मिला। सन्त कहते हैं तुम जो चाहो वह मिले यह कोई जरूरी नहीं, वह तुम्हारे हाथ में भी नहीं, यह तुम्हें दुखी करेगा। जो मिला है उसे चाह लो उसी क्षण सुखी हो जाओगे क्योंकि वह तुम्हारे हाथ में है। यथार्थ को समझने की कोशिश होना चाहिये। हमारे जीवन में जो कुछ भी है वह हमारी इच्छा के अनुकूल नहीं होता, हमारे चाहे अनुरूप नहीं होता, जो है उसे हम चाह लें ये हमारे अनुकूल है। दूसरी बात संसार के जितने भी संयोग है वह कर्म से नियंत्रित हैं, नश्वर हैं, हम उन्हें कितना भी बनाना या बदलना चाहे, वह परिवर्तित नहीं हो सकते। इन बातों को हम ध्यान में रखकर के चले तो निश्चयत: वो हमारे जीवन में व्यापक बदलाव का आधार बनायेंगे, बनेगा और हमारे अन्दर के असन्तोष को हम कम करने में समर्थ होंगे।
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