शिखरजी की टोंकों का इतिहास एवं वन्दना कैसे करें?

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शंका

24 तीर्थंकरों की जितनी टोंक शिखरजी में बनी हुई हैं और मन्दिर बने हुए हैं, ये कब से बने हुऐ हैं? इनको बनाने का विचार किसके दिमाग में आया? यात्रा के लिए वहाँ जाते समय यात्रियों के दिमाग में क्या बात रहनी चाहिए? किस प्रकार की निर्मलता रहनी चाहिए? साथ में श्लोक और जो अर्घ है, वह बोलने से और वहाँ जो भी अर्घ आदि लिखे हुए हैं उनके बोलने से मन में कितनी निर्मलता आती है? कितने करोड़ों मुनि मोक्ष गए हैं ऐसे पवित्र तीर्थ स्थान की वन्दना से सबको क्या पुण्य मिलने वाला है? और आगे क्या आत्मसात करने वाले हैं? कृपया जानकारी देने की कृपा करें?

समाधान

जहाँ तक पहला सवाल है कि ये टोंक कब से बने? इन टोकों का इतिहास लगभग 250 साल पुराना है, ज्यादा पुराना नहीं और इनके विषय में ऐसा कहा जाता है,यह एक किम्वदन्ती है कि एक बार कोई भट्टारक जी या यतिजी यहाँ आए, उन्होंने मन्त्र पढ़कर बीस तीर्थंकरों के नाम की पर्ची उड़ाई और जो पर्ची जहाँ गिर गई वहाँ पर उन भगवान की टोंक बना दी गई। स्वर्णभद्र कूट पारसनाथ भगवान का बिल्कुल नियत है, बाकी टोंक कहाँ थे? अगर हम अजितनाथ भगवान की टोंक की जगह को देखते हैं तो साढ़े चार सौ धनुष तो उनकी अवगाहना थी, इतनी छोटी सी जगह में तो वे बैठ भी नहीं पाएँगे। पर उनके काल में पर्वत बहुत ऊँचा था। दिनों दिन इसका क्षरण हो रहा है। यह अवशिष्ट पहाड़ है, दिनों दिन क्षीण हो रहा है। पंचम काल के अन्त में एकदम भूतल में समा जाएगा, एकदम चकनाचूर हो जाएगा। फिर जब काल का प्रवर्तन होगा तो उठेगा। तो यह स्थान शाश्वत है पहाड़ शाश्वत नहीं है, ऐसी चर्चा है। यह जो भी हो, ऊपर हम जहाँ जाते हैं हमारे लिए तो कण-कण पूज्य है। ये पर्वतराज केवल ऊपर से ही वन्दनीय नहीं, इसका कण-कण पूज्य है। 

ऐसी भी चर्चायें आती है कि पहले लोग वन्दना के लिए ऊपर जाते ही नहीं थे, जैसे कैलास यात्रा के समय लोग कैलास पर्वत की परिक्रमा करते हैं, वैसे इस पर्वतराज की परिक्रमा को ही उसकी वन्दना मानते थे क्योंकि पर्वत राज को हम इतना पूज्य मानते थे कि वन्दना के क्रम में पर्वत पर पैर रखना भी पाप समझते थे। आज हम सब भी वन्दना करने जाते है, लोग भी वन्दना करने जाएँगे, तो क्या भाव लेकर जायें? सबसे पहली बात, आप अपने मन में यह भावना रखें कि मैं इस धरती के पवित्रतम स्थल पर जा रहा हूँ। यह सिद्ध निषिधिका है। निषिधिका – नियम से जो सिद्धि का कारण है, उसका नाम निषिधिका है। यह सिद्ध निषिधिका है और यहाँ से अनन्त मुनियों को निर्वाण की उपलब्धि हुई। उनके निर्वाण उपरान्त उनके दिव्य शरीर की पवित्र रज आज भी यहाँ के वातावरण में है, हम उस रज को लेने जा रहे हैं। वन्दना के क्रम में, मैं आप सब से कहता हूँ कि अगर आप वन्दना करने जायें तो कोशिश करें पैदल जाने की। जिनको कार्डियक प्रॉब्लम न हो, ब्लड प्रेशर नार्मल हो, शरीर ठीक हो, डायबिटिक न हो, वह पैदल यात्रा करने का मनोभाव रखें और जब जाएँ तो इस संकल्प के साथ जायें कि जब तक मैं शिखर पर नहीं पहुँचुगा तब तक कहीं नहीं बैठूंगा। थक जाएँ तो लाठी के सहारे अपने साँस को सामान्य बना लें और अपनी चाल में चलें। किसी दूसरे से होड़ न करें। 

मन ही मन ‘ऊँ ह्रीं नमः, ऊँ ह्रीं नम: की मानसिक जाप करें और मन में मुझे चढ़ना है, चढ़ना है, चढ़ना है, सोचिए। कब ऊपर पहुँच जाओगे आपको पता ही नहीं लगेगा। जब टोंकों में जायें तो पूजा की पुस्तक है, उन अर्घों को पढ़ें और चरणों में हाथ रखें, आँखें बंद करें, कुछ पल के लिए भगवान की छवि को स्मरण करें और यह भाव रखें कि हे प्रभु, आप तो मुक्ति को प्राप्त कर गए। आपकी वह पवित्र रज यहाँ है, वह मुझे प्राप्त हो और मेरी आत्मा में ऐसी ऊर्जा और पात्रता प्रकट हो कि मैं भी आपकी तरह इस संसार के आवागमन से मुक्त हो जाऊँ। देखिए आपकी क्या भाव विशुद्ध बढ़ती है! इस तरीके से वन्दना करना बहुत आनन्द दायक होगा।

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