अपना संकट जायज़ लगता है, पर दूसरों का नाजायज़?

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शंका

जब मेरे ऊपर संकट आता है, तो मैं हर प्रकार से, हर द्वार से सहायता लेना अपना अधिकार और धर्म समझता हूँ। लेकिन जब दूसरे के ऊपर संकट आता है और वो सहायता प्राप्त करना चाहता है, तो उसकी सहायता प्राप्त करने के तरीके में मुझे कई अधर्म दिखने लगते हैं, कई प्रकार की बाधाएँ दिखने लगती हैं, इस मनोवृत्ति के पीछे कारण क्या है, कृपया समाधान करें?

समाधान

एक बार की बात है, एक व्यक्ति मेरे पास आया। वह अपनी बीमारी का पर्चा लेकर आया, उसका प्रिसक्रिप्शन था, हजार रुपये की ज़रूरत थी। मेरे पास एक सज्जन बैठे थे, मैंने उस तरफ देखा, उन्होंने मेरे सामने हजार रुपए दे दिए, वो लिया और चला गया। वहीं बाजू में एक दूसरे व्यक्ति थे, उन्होंने कहा आपने हजार रुपया क्यों दे दिया? “यह आदमी बेईमान है, यही इसका धंधा है, इसने कईयों से लिया होगा।” जो सज्जन मेरे पास बैठे थे, जिन्होंने रुपया दिया, उन्होंने कहा “भैया वह बेईमान है, तो ठीक है, मैं कौन सा ईमानदार हूँ, मैं कोई बेईमानी नहीं करता क्या? उसने तो हजार रुपये की बेईमानी की, मैं तो लाखों का बेईमानी करता हूँ, अपने व्यापार कारोबार में।” 

तुम्हें दूसरों का पाप दिखता है, अपना पाप भी दिखना चाहिए। जब मनुष्य को दूसरों के साथ अपनी बात दिखने लगती है, तो जीवन की धारा परिवर्तित हो जाती है। आप दूसरों को मत देखिए, अपने को देखें। माना कि कोई गलत हो सकता है, अच्छाई की ओट में ही बुराई पलती है, लेकिन जब संवेदना और सहानुभूति के भाव हृदय में प्रकट होते हैं तो इस प्रकार की जांच-पड़ताल की बात नहीं होती। आप यह मान करके चलें कि दुनिया में कोई दूध का धुला हुआ नहीं है। हम किसी पर आरोप न लगायें और किसी के प्रति संदिग्ध दृष्टि न रखें। हम आवश्यकता देखें और प्रथम दृष्टया समझ में आए तो दे करके अपने आप को निकाल लें। 

आपने पूछा है कि “जब स्वयं की आवश्यकता होती है तब तो हम अपनी सब बातों को जायज ठहराते हैं और जब दूसरा कोई जरूरतमंद आता है, तो उसकी जायज बातें भी हमें नाजायज दिखने लगती हैं।” यह मनोवृति, गलत मनोवृति हमारे भीतर की संवेदनहीनता का उदाहरण है। अपने अन्दर संवदेना जाग्रत करें, मन को संवेदनशील बनायें और यदि ऐसी संवेदना जगती है, तो जीवन की धारा में परिवर्तन आता है और लोग बदलते हैं, बदलाव लाते हैं। 

कोशिश यह होनी चाहिए कि हमारे ऊपर कोई कष्ट आये तो जहाँ तक बने हम किसी के आगे हाथ ही न फैलायें, अपने कष्टों को हम अन्तिम क्षण तक सहें और दूसरे के ऊपर कोई कष्ट आए तो हम उसके लिए पिघल जाएं। स्वयं के कष्टों पर सहनशील बनें और दूसरों के कष्टों के प्रति संवेदनशील बनें, बस यही धर्म का सार है। ऐसी संवेदनशीलता आएगी तो जीवन में निश्चित रूप से परिवर्तन घटित होगा।

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