लौकिक शिक्षा और धार्मिक शिक्षा में तालमेल कैसे बैठाएँ?

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शंका

लौकिक शिक्षा का धार्मिक शिक्षा से कितना प्रयोजन है? हमें लौकिक शिक्षा में ज़्यादा समय निकालना पड़ता है, इस कारण हमारी धार्मिक शिक्षा नहीं हो पाती है, मार्गदर्शन दीजिये?

समाधान

लौकिक शिक्षा और धार्मिक शिक्षा दोनों में अन्तर है। लौकिक शिक्षा भी एक विद्यार्थी के लिए जरूरी है और धार्मिक शिक्षा भी एक व्यक्ति को जरूरी है। लौकिक शिक्षा से जीवन के निर्वाह की व्यवस्था होती है और धार्मिक शिक्षा से जीवन के निर्माण और निर्वाण का पथ प्रशस्त होता है, अब थोड़ा  सन्तुलन बनाकर के चलिए। 

छात्र जीवन में लौकिक शिक्षा पर ध्यान दें और धार्मिक शिक्षा में बहुत गहराई में न भी जाए तो कम से कम धार्मिक संस्कारों को जरूर ध्यान में रखें। जो हमारे मूलभूत धार्मिक कर्तव्य हैं हम उनका दृढ़ता से पालन करें। जो अपने संस्कार और सरोकारों को सुरक्षित रखकर चलते हैं उनका जीवन सुखी होता है। अब आपको कोई कहे कि ‘विद्यार्थी जीवन में धर्म की ही पढ़ाई करते रहें अपने कोर्स की पढ़ाई न करें तो फिर वहाँ से नाम कटवालें, यहाँ पढ़ें और इसमें आगे बढ़े’- लेकिन उसे करने से काम नहीं चलेगा। दोनों में समन्वय बना करके चलना चाहिए। उसे अपना टेक्स्ट माने वो टेक्स्ट बुक है, पाठ्यपुस्तक है, उसे आपको पढ़ना ही होगा और इसे अपने जीवन के निर्माण का आधार माने। इसे थोड़ा पढ़ करके भी अगर आप अपने जीवन में उतारते हो तो बहुत काम आ सकता है और उस दिशा में आगे बढ़े। 

मैं एक ही बात कहता हूँ लौकिक शिक्षा ठीक से नहीं ले पाओगे तब तुम परीक्षा में फेल हो जाओगे और धार्मिक शिक्षा अगर नहीं ले पाओगे तो जिंदगी की परीक्षा में फेल हो जाओगे। लौकिक शिक्षा में परीक्षा की जिंदगी है, धार्मिक शिक्षा हमें जिंदगी की परीक्षा में पास कराती है, बस यही अन्तर है। दोनों के साथ तालमेल बनाकर चले।

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