नगरों में रहने वाले व्रतों को कैसे पालें?

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शंका

आज के परिवेश में ‘व्रती’ जीवन कैसे जियें?

समाधान

आज के परिवेश / परिपेक्ष्य में व्रती जीवन कैसे जियें? व्रती जीवन जीने के लिए देश-काल की परिस्थितियाँ बाधक नहीं बनतीं। हर परिवेश और हर परिस्थिति में व्रती जीवन जिया जा सकता है। मैं तो कहता हूँ कि आज के परिवेश में भी बहुत अच्छे तरीके से लोग व्रती जीवन जी सकते हैं। देश काल की सीमाएँ व्रती जीवन जीने में बाधक नहीं बनतीं हैं। बाधक बनती है मनुष्य के मन की निष्ठा! आप ऐसा कह सकते हैं कि आज हम लोगों का रहन-सहन का तरीका बदल गया है। ऐसे समय में सोला / मर्यादा का खाना आदि किस तरीके से अपनाएँ? किस तरीके से सोला आदि का काम करें? बहुत दिक्कत होती है। 

एक बार एक बहन जी ने कहा कि ‘महाराज जी! मैं महानगर में रहती हूँ। हम मर्यादा के लिए कहाँ अनाज सुखायें? कहाँ मर्यादा का दूध लाए? कहाँ मर्यादा का घी लें? कैसे करें? हम व्रत करना चाहते हैं तो भी व्रत नहीं ले पाते हैं। व्रती बनना चाहते हैं फिर भी व्रती नहीं बन पाते हैं। इसके लिए क्या करें?’ 

 इसके लिए पूरी समाज से ये कहता हूँ समय के अनुरूप परिवर्तन होना चाहिए। और व्रतों में शिथिलता लाने की जगह व्रतों की व्यवस्था को सुधारने की कोशिश करनी चाहिए। व्रतों की व्यवस्था को सुधारने का एक तरीका ये है कि हर शहर में जिन मन्दिर के पास एक सोला भंडार खोल देना चाहिए। किसी सुधी श्रावक के द्वारा जो खुद भी व्रती हो, हर चीज मर्यादा की उपलब्ध रखें। मर्यादा का धुला हुआ गेहूँ, धुला हुआ अनाज, मर्यादा का घी, मर्यादा का तेल, जो कुछ जैसा शास्त्रों में वर्णित है वो चीज वहाँ उपलब्ध करा दें। केवल दो ही कमरे रहते हैं, फ्लैट छोटा सा रहता है; वहाँ धोने / सुखाने की अनुकूलता नहीं है। ऐसे व्यक्ति वहाँ जाए, पैसा दें, चीज ले लें। जो बच जाये वो दूसरी जगह बिक जाए। ऐसी व्यवस्था जगह-जगह पर कर दी जाए तभी किसी को भी व्रतों के पालन में किसी भी तरह की असुविधा नहीं होगी।

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