भक्त का गुरु के प्रति समर्पण और भक्ति कैसी होनी चाहिए?

150 150 admin
शंका

एक भक्त का गुरु के प्रति कैसा समर्पण होना चाहिए और भक्त को गुरु की भक्ति कैसे करनी चाहिए?

समाधान

भक्त गुरु के प्रति समर्पित नहीं होता, शिष्य गुरु के प्रति समर्पित होता है। भक्त श्रद्धालु होता है और शिष्य समर्पित होता है। भक्त कौन हैजो गुरु की पूजा करे, जो गुरु में श्रद्धा रखे, जो गुरु की प्रशंसा करे, वह भक्त है। और शिष्य वहजो गुरु के चरणों में समर्पित हो, उनका आज्ञानुवर्ती बने, उनका अनुगामी बने! तो भक्त और शिष्य दोनों अलगअलग हैं, भक्त विभक्त हो सकता है किन्तु शिष्य कभी गुरु से दूर नहीं होता; शिष्य, शिशु की तरह गुरु चरणों का सेवक बन जाता है, जैसे एक मां अपने बच्चे को रखती है शिष्य भी वैसे ही रहता है ।

समर्पण! गुरु के प्रति समर्पण कैसे हो? तीन चीजें गुरु के चरणों में समर्पित कर दो– (1)अपनी निर्णय शक्ति, (2)अपनी समझ और (3) अपनी सहनशक्ति; आपका काम हो जाएगा। यह तीनों गुरु चरणों में रख दो, तुम्हारा उद्धार होगा। अपना दिमाग गुरु के पास लेकर जाओगे, तो कुछ नहीं हो पाएगा। पहले बुद्धि गुरु के चरणों में रख दो औरगुरु जो करते हैं, वह सही करते हैंयह हृदय में धार लो तो गुरु कृपा बरसेगी।जो गुरु सोचते हैं जो गुरु करते हैं, वह मेरे हित में होता है अगर वहां दिमाग लगाओगे तो फंसोगे। तो आपकी समझ चाहे जितनी भी शक्तिशाली हो गुरु चरणों में अपने आप को छोटा ही रखें।

आप लोग मेरी प्रशंसा करते हैं, कहते हैं कि मैं कितनी जल्दी जल्दी प्रश्नों का उत्तर देता हूं’, लेकिन जब मैं अपने को अपने गुरु के सामने पाता हूं, तो मुझे लगता है कि मुझे कुछ नहीं आता और जब मैं उनके चरणों में जाता हूं, तो अपना सारा ज्ञान एक तरफ उतार कर रख देता हूं। जब तक अपना ज्ञान एक तरफ उतारकर नहीं रखोगे, तब तक कल्याण नहीं होगा। बुद्धि हमारे लिए बहुत रुकावट पैदा करती है; मैं औरों की बात नहीं कहता, मैं अपनी बात कहता हूं। बुद्धि लगाने वाले कभी आगे नहीं बढ़ पाते, बुद्धि को समर्पित करने वाले आगे बढ़ते हैं। इंद्रभूति गौतम ने जब तक अपनी बुद्धि का मद किया, बुद्धि अपने पास रखी, वह गौतम बना रहा इंद्रभूति ही बना रहा; जब भगवान महावीर के समवशरण में आया, उसने अपनी बुद्धि भगवान के चरणों में समर्पित कर दी; वह इंद्रभूति गौतम से गौतम गणधर बन गया।बुद्धि को गुरु के चरणों में समर्पित करना होता है, तो जब तक यह बुद्धि तुम अपने साथ जोड़े रखोगे तुम्हारा कल्याण कभी नहीं हो सकेगा।

जितनी बुद्धि बुद्धि मेरे पास आज है उतनी बुद्धि दीक्षा के पहले होती तो शायद में दीक्षा नहीं ले पाता, इसको उतार के गुरु चरणों में रख दो। जो गुरु ने निर्णय दिया वही सही, इसके अलावा कुछ भी नहींबस यही सोचो अच्छा है तो बुरा है तो! किंतु मेरे लिए वही अच्छा है

सहनशक्ति-अच्छा कहे तो, बुरा कहे तो, हितकर कहे तो, अहितकारी कहें तो !

 “गुरु कुम्हार, शिष्य कुंभ है, गढ़ गढ़ काढ़े खोट।

अंतर हाथ सम्हार के, बाहर मारे चोट।।”

 मारने दो, जितना चोट मारेंगे! लेकिन हमने समर्पित कर दिया है!

 “सौप दिया इस जीवन का हर भार तुम्हारे हाथों में,

 हर जीत तुम्हारे हाथों में, हर हार तुम्हारे हाथों में।।”

 इसका नाम है समर्पण !

Share

Leave a Reply